अचल था पर्वत धरा पे ।
भुर-भुरा के गिर पडा ।
हुई नीब खोखली इतनी ।
खड़ा था जो अकड़ के ।
बिना किसी पकड़ के ।
झरनों का वो घर था ।
पेड़ों का वो स्वर्ग था ।
नदियों की रसधार थी ।
सूरज उसका श्रृंगार था ।
ऐसा पागल प्रकृति प्रेमी ।
अचल था पर्वत धरा पे ।
भुर-भुरा के गिर पडा ।
बढ़ी इंसान की आबादी ।
छिनी पर्वत की आज़ादी ।
सड़कों का जाल बुना ।
इसको तोड़ने का ख्वाब बुना ।
तरक्की-2 करते गए ।
पीड़ा इसकी और बढ़ाते गए ।
अस्थिरता इसमें पलती गई ।
नीब इसकी हिलती गई ।
अचल था पर्वत धरा पे ।
भुर-भुरा के गिर पडा ।
पेड़ कोई बाकी न रहा ।
पर्वत पे पंछी घर न रहा ।
नदियों की जलधार सूखी ।
पर्वत की पीर भी सूखी ।
टूटा सबर का बाँध ऐसा ।
प्रलय आया घनघोर कैसा ।
अचल था पर्वत धरा पे ।
भुर-भुरा के गिर पडा ।
मिटा दिया जो सामने आया ।
ये देख मानब तू क्यों घबराया ।
तेरा ही दिया था सब ।
तुझको ही बापिस लौटाया ।
अचल था पर्वत धरा पे ।
भुर-भुरा के गिर पडा ।
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