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शिकवे गिले इतने थे



शिकवे गिले इतने थे की करते करते शाम हो गई ।
कहने मैं क्या आया था और यह जुबाँ क्या कह गई ।

दफ़न थी सदियों से जो अगन उभर आई शायद ।
शिकन जो दिल में थी अब वो चहरे पर उतर आई।

हर एक लफ्ज़ को खिलाफत-ए-वफ़ा में पिरोया ।
मेरे चहाने बालों के बीच मुझसे यह गुस्ताखी हो गई।

है रंज गर मेरे होने से सबको तो इसमें क्या मेरी खता ।
बेहतर ही ना सही कुछ तो मुलाक़ात मुझे मिल गई।

गैरों की बज्म में तो कई शिकायतें की अक्सर।
आज अपनों से की तो एक पुरानी याद लौट आई।

दिन ढले जो दस्तक दी दर्द ने मेरे पहलु में ।
कड़वे किस्सों की हकीकत आज बयाँ हो गई।

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