कुछ इस तरह से जिंदगी बीती मेरी ,
की हर ख्वाब धुन्धला होता गया ,
शक्ल और सवाल दोनों अन्जान थे मेरे लिए,
बिना पहचान के यह फासला बनता गया ,
हाँ बस इतना याद था मुझे ,
की वो मुझ मैं ही था कहीं,
यही जबाब तो मुझे सवालों में उलझाता गया,
क्या पूछता मैं उससे, वो अन्जान था मेरे लिए,
फिर क्यूँ अपनी पहचान दे गया,
अगर जाना ही था उसे ,क्यूँ अपनी याद दे गया,
कभी कभी मैं सोचता हूँ इन उलझे सवालों के बीच,
उलझन के हर पहलु मैं वो रंग तो भर गया…!!
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