साथी छूटा गांव भी छूटा,
अपरिचित हुआ आँगन है ,
तड़प रही है ख्वाहिशों की डोरी,
टूटे आईने में चेहरों की कतारें हैं,
आलिंगन कर भ्रम से ,
मुसाफिर घर से निकल पड़ा है,
बेसुध हुआ अनघड़ मन,
न बुरा है न भला है,
बस आज्ञात स्वपन का मारा है,
साथी छूटा गांव भी छूटा,
अपरिचित हुआ आँगन है ,
अधिकार शिथिल पड़े हैं,
ब्याकुल हुई काया है,
नए पुराने धुंधले से,
किस्सों कि अन्नंत ब्यथा है,
लग रहा जमघट काली दीवारों का,
अँधेरा उमड़ उमड़ के आया है,
साथी छूटा गांव भी छूटा,
अपरिचित हुआ आँगन है ,
वन उपवन जो महक रहा था,
पल भर में उजड़ा है,
गगन को छूता अभिमान,
केसे मिटटी मिटटी हुआ है,
बिलख रहा था जो शिशु कि भांति,
अब ह्रदय वो बेदना से भरा है,
साथी छूटा गांव भी छूटा,
अपरिचित हुआ आँगन है ,
मुझमें मैं नही तुम में तुम नही,
संघर्ष कि प्रवल जिम्मेदारी है,
खटक रही जो अब मुझको,
चुनी हुई राह वो मेरी है,
मौन खड़ी है करुणा कहीं,
पीड़ा की अमिट छाया है,
साथी छूटा गांव भी छूटा,
अपरिचित हुआ आँगन है !!
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