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एक मिट्टी का घरोंदा


एक मिट्टी का घरोंदा, 
एक टूटी फूटी छत,
दीवारों पर लगे कुछ टेढ़े मेढ़े पत्थर,
जो कहने को तो मेरा घर हैं,
सूखे में तो कभी पानी मिलता नहीं,
और बरसात में अपना ही घर समुन्द्र लगने लगता है,
अब तो आप समझ ही गए होंगे की मैं कौन हूँ,
एक गरीब झोपडी में रहने बाला आम आदमी,
जिसकी  तकलीफों की तरफ शायद ही किसी का ध्यान जाता हो कभी, 
हाँ कभी माँल या फिर कोई होटल बनाना हो मेरे घर को तोड़ कर,
मेरे परिवार को सड़क पर लाना हो तो जरुर याद करते हो मेरे घर को, 
वैसे इसके इलावा मुझे जानने की बजह भी क्या है किसी के पास,
बहुत कम लोग हैं जो मुझे नाम से जानते हैं,
या फिर शायद कोई नही है,
जानने जैसी बात मुझमें है भी कोई नहीं,
ना में धोखेबाज़ हूँ, ना कोई चालबाज़ हूँ, ना कोई उद्योगपति हूँ ,
और ना ही कोई नेता या अभिनेता हूँ ,
फिर क्यों कोई मुझे पहचानेगा,
कुछ लोग शायद मुझे किसी देश, 
किसी प्रदेश, किसी जाति ,
किसी धर्म, या सम्प्रदाय से भी जोड़ने की कोशिश करेंगे, 
पर वो शायद यह नही जानते की मैं तो हर देश , 
हर सम्प्रदाय, में बसता हूँ,
महगाई, भ्रष्टाचार, अपराध इन सब में भी 
दो पल की ख़ुशी तलाशने की जदोजेहत में जो लगा हो वो एक
 गरीब और लाचार आम आदमी ही तो है, जिसके हाथ में कुछ नही है, 
मैं दिन रात मेहनत करके अपना घर चलाने की कोशिश करता, 
शिक्षा के व्यबसायीकरण के बाबजूद मैं अपने बच्चों की अच्छी 
शिक्षा के लिए उन्हें अच्छे स्कूलों में भेजता हूँ ,
 अपना पेट काट कर उन स्कूलों की भरी भरकम फीस भरता हूँ,
और अगर कुछ बचता है तो उसे आयकर के रूप में सरकार को अदा करता हूँ,  
ताकि मेरे देश का भविष्य निर्माण हो सके, सरकार चाहे कोई भी क्यों ना हो, 
वो देश का भविष्य निर्माण तो करती नहीं, 
पर उससे अपना भविष्य निर्माण जरुर कर लेती है,
मेरे ही पैसों को अपना बता कर भीख की तरहा मुझे देती है, 
मैं कर भी क्या सकता हूँ एक आम आदमी जो ठहरा , 
कभी आवाज़ उठता भी हूँ तो मेरे उन रहनुमाओं की ऊँची 
दीवारों के परे उनके बहरे कानो तक मेरी आवाज़ कभी पहुँचती ही नही है,
मेरे लिए जो संविधान बनाया है, उसमें तो मेरे लिए बहुत से 
अधिकारों की बातें लिखी गयी,
आज जब मैं अपने ही अधिकारों की बात करता हूँ तो मुझ पर मेरे ही 
रक्षकों की लाठियाँ बरसती है, मेरे रहनुमा तो अपना अपना 
रोना रो जाते हैं, और खून मेरा बहता है,

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