कुछ सोचने बैठता तो हूँ मैं
मगर सोचता फिर कुछ भी नही
कई विचार गोते खाते हैं मेरे भीतर
मगर कहने को फिर कुछ भी नही
धीमे धीमे से हर आहट को सुनता हूँ।
सुनता तो सब हूँ और सबकी हूँ।
मगर समझता फिर कुछ भी नही।
एक आसान सी पहली में उलझ जाता हूँ।
इतना उलझता हूँ मैं कि
सुलझता फिर कुछ भी नही.!!
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