
अपनों की बस्ती में गैरों को बसा बैठा।
नादान था मैं जो यह फर्क भुला बैठा।
एक रिश्ता जोड़ना था मुझको सो जोड़ लिया।
इस चक्कर में कितनो से नाता तोड़ लिया ।
हर तोहमत को मैने सर आँखों पर बिठाया।
उसकी ख़ुशी की खातिर खुद को भी भुलाया।
मगर वक़्त बदला तो वो शक्स भी बदला ।
फासलों से अब उसका नजरिया भी बदला ।
नए संग साथी दोस्त मिले जब उसको।
बाँध न पाई कच्चे धागों की डोर उसको।
हमसे वो अब खफा-खफा सा रहने लगा ।
बात करने का एक दिखावा सा करने लगा ।
मैं खाली रास्तों को ही ताकता रह गया।
वो मुझसे दूर कहीं बहुत दूर निकल गया।
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